उम्मीद, एक ऐसा शब्द जिसके कई अलग अलग मायने हैं, उम्मीद के सहारे लोग अपना जीवन बिता देते हैं। कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है। कुछ ऐसी ही उम्मीद थी, उस माँ को अपने उन बेटों से जो कई सालों से इराक़ के मसूल शहर में लापता थे।
ठीक ऐसी ही उम्मीद थी उस पत्नी को जो अपने पति के वापस लौटने की राह देख रही थीं और बच्चों को उनके पिता के जल्द वापस आने का भरोसा दिला रही थी लेकिन ये हो ना सका।
देश भर में उस वक्त मातम सा छा गया जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद को बताया कि 2014 में इराक़ के मसूल शहर से अग़वा किये गए 39 भारतीयों की मौत हो चुकी है और उनके शव बरामद कर लिये गए हैं। उन्होंने कहा कि शवों की पहचान DNA जाँच के मिलान से की गई है।
सुषमा ने बताया कि ये चरमपंथी संगठन ISIS के हाथों मारे गए हैं। वहीं, 40वां शख़्स मुसलमान बनकर वहाँ से भागने में कामयाब रहा है। हरजीत मसीह मुसलमान बनकर मसूल शहर से भागने में सफ़ल रहा और इस घटना की जानकारी भी सरकार को दी, लेकिन उसकी बातों का किसी ने यक़ीन नहीं किया, 2015 में हरजीत मसीह की बातों को विदेश मंत्री स्वयं ग़लत साबित ठहरा चुकी हैं।
लेकिन ये ख़बर सही निकली कि 39 भारतीयों को IS ने मार दिया, इनमें 31 पंजाब के, 4 हिमाचल और बाकी बिहार और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे, मारे गए सभी लोग तारिक नूर हुदा कंपनी के लिए काम करते थे।
क्या हुआ था?
मूसल में चरमपंथियों ने साल 2014 में 80 लोगों का अपहरण कर लिया था जिनमें से 40 भारत के थे और 40 बांग्लादेश के, उनके अपहरण के बाद से भारत सरकार उनकी हत्या की बात को समय-समय पर नकारती रही और इन मामले में लापरवाही के अलावा कोई कार्यवाही नहीं की गई।
मसूल इराक़ का दूसरा सबसे बड़ा शहर है, 2014 में इस्लामिक स्टेट कहने वाले चरमपंथी संगठन ने अपने कब्ज़े में ले लिया था। IS के चंगुल से छुड़ाने के लिए इराक़ी सेना के हजारों सैनिक, कुर्द पेशमर्गा लड़ाके, सुन्नी अरब आदिवासी और शिया विद्रोही लड़ाकों ने ISIS के आतंकियों से लड़ाई जारी रखी और इस लड़ाई में अमरीकी वायुसेना उन्हें मदद करती रही। लंबी लड़ाई के बाद 2017 में इराक़ के प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी ने मूसल को IS के कब्ज़े से मुक्त होने की घोषणा की थी।
चंद रुपये कमाने और काम की तलाश में इराक़ के मसूल शहर गए इन भारतीयों ने कभी नहीं सोचा होगा की इनके साथ ये हालात पैदा होंगे। और उन्हें आईएस की गोलियों का शिकार होना पड़ेगा।
इस दुखद जानकारी के बाद PM मोदी ने ट्वीट कर कहा, “पूरा देश मोसुल में जान गंवाने वाले लोगों के परिवार वालों के साथ है। इस दुख की घड़ी में हम उन परिवारों के साथ खड़े हैं और मोसुल में मारे गए भारतीयों के प्रति सम्मान जताते हैं।” लेकिन क्या असल में सरकार इन पीड़ितों का ख़्याल कर रही है?
दरअसल, सरकार इन सभी 40 भारतीयों के जीवित रहने की बात कहती रही जबकि ख़बर मारे जाने की मिली। ये मुद्दा 2014 से गरमाया हुआ था लेकिन अन्य मुद्दों के बीच कहीं खो गया और अचानक से सभी की मौत की ख़बर आ गयी।
जून 2014 में ISIS ने इन्हें अगवा कर लिया था, गायब भारतीयों की तलाश के लिए भारत ने इराक़ सरकार से मदद मांगी थी। जैसे ही सरकार ने 39 भारतीयों के मसूल में मारे जाने की पुष्टि की, एक दो नहीं, 39 परिवारों की सारी उम्मीदें उनका भरोसा सब एक पल में टूट गया। सब बिलख उठे उन्हें ये भी लग रहा है कि सरकार ने उन्हें अँधेरे में रखा और अपनों के मारे की ख़बर भी उन्हें मीडिया से लगी।
आख़िर कब जागेगी सरकार?
आख़िर क्यों सरकार के बड़े बड़े दावों के बावजूद इन मज़दूरों को अपने देश को छोड़ काम के सिलसिले में दूसरे देश जाना पड़ रहा है, ये तो वो बेबस और लाचार थे जो कुछ रूपए कमा कर अपने परिवार का पेट भरना चाहते थे, पर ये हो ना सका, अब ना तो पंजाब के वो लाल कभी घर वापस लौटेंगे, ना ही हिमाचल की हँसीं वादियों में अपना बचपन बिताने वाले वो चार मज़दूर वापिस लौट कर गाँव आएंगे।
दूसरे देशों में जा कर उन्हें अपने देश में निवेश करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है बहुत अच्छी बात है लेकिन क्या इस देश के उस व्यक्ति की परेशानियों और मुसीबतों को कम करने में आप कोई काम कर रहें हैं। आख़िर क्यों नौकरी की चाह में आज के युवाओं को मज़दूरों को गाँव से शहर और शहर से दूसरे देश मे पलायन करना पड़ रहा है।
आख़िर कब सरकार जागेगी और इस जनता को उसके हक़ की लडाई में जीत दिलाएगी ये एक बड़ा सवाल है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो उसे जनता के सरोकार के लिए काम करने होंगे जिस से उनका भविष्य तय होगा।
[फोटो क्रेडिट- BBC)
नोट: इस ब्लॉग को Vinay Rawat ने हमारे प्लेटफॉर्म पर लिखा है और पेशे से ये एक पत्रकार हैं।